परिचय
- भारतीय समाज प्राथमिक रूप से ग्रामीण समाज ही है लेकिन यहाँ नगरीकरण बढ़ रहा है
- भारत के बहुसंख्यक लोग गाँव में ही रहते हैं ( 68.8%, 2011 के अनुसार) उनका जीवन कृषि संबंधित व्यवसायों से चलता है।
- बहुत से भारतीयों के लिए भूमि उत्पादन का एक महत्वपूर्ण साधन है।
भूमि का महत्व
1. उत्पादन का एक साधन
2. संपति का एक प्रकार
3. जीविका का एक प्रकार है
4. जीने का एक तरीका भी है
भारतीय सांस्कृति में कृषि का महत्व
1. हमारी बहुत सी सांस्कृतिक रस्मों में कृषि का महत्व होता है।
2. भारत के विभिन्न क्षेत्रों में नव वर्ष के त्योहार
- तमिलनाडु में पोंगल,
- आसाम में बीहू,
- पंजाब में बैसाखी,
- कर्नाटक में उगाड़ी
3. ये सब फसल काटने के समय मनाए जाते हैं, और नए कृषि मौसम के आने की घोषणा करते हैं।
ग्रामीण सांस्कृतिक और सामाजिक संरचना में व्यवसाय
- ग्रामीण भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक संरचना दोनों कृषि और कृषिक जीवन पद्धति से बहुत निकटता से जुड़ी हुई है।
- अधिकतम ग्रामीण जनसंख्या के लिए कृषि जीविका का एकमात्र महत्वपूर्ण स्रोत या साधन है।
- ग्रामीण बहुत से ऐसे कार्य करते हैं जो कृषि और ग्राम्य जीवन की मदद के लिए महत्वपूर्ण हैं और वे ग्रामीण भारत में लोगों के जीविका के स्रोत हैं!
- बहुत से कारीगर या दस्तकार जैसे कुम्हार, जुलाहे, लुहार एवं सुनार ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं।
- औपनिवेशिक काल से ही वे संख्या में धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं।
- मशीन से बने सामानों के आगमन ने उनकी हाथ से बनी हुई वस्तुओं का स्थान ले लिया है।
- ग्रामीण भारत में व्यवसायों की भिन्नता यहाँ की जातिव्यवस्था में प्रतिबिंबित होती है
- ग्रामीण नगरीय आर्थिकी के परस्पर अंतः संबंध से कई व्यवसाय गाँवों में आ रहे हैं।
- बहुत से लोग गाँवों में रहते हैं, नौकरी करते हैं या उनकी जीविका ग्रामीण अकृषि क्रियाकलापों पर आधारित है।
ग्रामीण सामाज में भूमि का वितरण
- भूमि का विभाजन घरों के बीच बहुत असमान रूप से होता है।
- भारत के कुछ भागों में अधिकांश लोगों के पास कुछ न कुछ भूमि होती है - अक्सर जमीन का बहुत छोटा टुकड़ा होता है।
- कुछ दूसरे भागों में 40 से 50 प्रतिशत परिवारों के पास कोई भूमि नहीं होती है। कुछ थोड़े परिवार बहुत अच्छी अवस्था में है।
- बड़ी संख्या में लोग गरीबी की रेखा के ऊपर या नीचे होते हैं।
- पितृवंशीय व्यवस्था के कारण, भारत के अधिकांश भागों में महिलाएँ जमीन की मालिक नहीं होती हैं।
- ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि रखना ही ग्रामीण वर्ग संरचना को आकार देता है।
- कृषि उत्पादन की प्रक्रिया में आपकी भूमिका का निर्धारण मुख्य रूप से भूमि पर आपके अधिकरण से होता है।
ग्रामीण समाज में भूमि का असमान्य वितरण
- जमीन का जो मालिक है उसकी उच्च स्थित है कृषि से अच्छी आमदनी करते थे
- मजदूर कृषिक निम्न स्थित होती है कम मजदूरी दी जाती थी, कम आमदनी होती थी , रोजगार असुरक्षित होता था ,बहुत से दिनों उनके पास कोई काम नहीं होता था जिसे बेरोज़गारी कहते है
1. काश्तकार या पट्टेधारी
- कृषक जो भूस्वामी से जमीन पट्टे पर लेता है
- आमदनी मालिक कृषकों से कम होती है।
- क्योंकि वह जमीन के मालिक को किराया चुकाता है
- फसल से होने वाली आमदनी का 50 से 75 प्रतिशत ।
2. कृषिक समाज
- जाति व्यवस्था द्वारा निर्मित है
- ग्रामीण क्षेत्रों में, जाति और वर्ग के संबंध बड़े जटिल होते हैं।
- यह सोचते है कि ऊँची जातिवाले के पास अधिक भूमि होती है
- कई जगहों पर सबसे ऊँची जाति ब्राह्मण बड़े भूस्वामी नहीं हैं
- भारत के अधिकांश क्षेत्रों में भूस्वामित्व वाले समूह के लोग अन्य वर्ण के हैं।
- एक या दो जातियों के लोग ही भूस्वामी होते हैं, वे संख्या के आधार पर भी बहुत महत्वपूर्ण है।
3. प्रबल जाति
- प्रबल जाति समूह काफी शक्तिशाली होता है आर्थिक और राजनीतिक रूप से वह स्थानीय लोगों पर प्रभुत्व बनाए रखता है।
2. कर्नाटक के वोक्कालिगास और लिंगायत,
3. आंध्र प्रदेश के कम्मास और रेड्डी
4. पंजाब के जाट सिख
- उच्च जाति के लोग निम्न जाति के लोगों से काम करवाते थे और अपने लाभ कमाते थे
- प्रबल जाति समूहों के पास ये लोग कृषि मजदूर की तरह काम करते थे
- समाज में अच्छी जमीन उच्च और मध्यम जाति के पास रहती थी
4. बंधुआ मजदूर प्रथा
- गाँव के जमींदार या भूस्वामी के यहाँ निम्न जाति समूह के सदस्य वर्ष में कुछ निश्चित दिनों तक मजदूरी करते हैं।
- इस तरह की व्यवस्थाएँ समाप्त हो गई हैं, लेकिन वे कई क्षेत्रों में अभी भी चल रही हैं।
- गुजरात में हलपति के नाम से जाना जाता है
- कर्णाटक में इसे जीता कहते है
भूमि सुधार के परिणाम
1. पूर्व औपनिवेशिक काल
- स्थानीय राजा या जमीदार भूमि पर नियंत्रण रखते थे।
- किसान अथवा कृषक जो कि उस भूमि पर कार्य करता था
- वह फसल का एक पर्याप्त भाग उन्हें देता था।
अंग्रेज़ भारत में आते है
- उन्होंने कई क्षेत्रों में इन स्थानीय जमींदारों द्वारा ही काम चलवाया।
- उन्होंने जमींदारों को संपति के अधिकार भी दे दिए।
- भारत में बहुत से जिलों का प्रशासन जमींदारी व्यवस्था द्वारा चलता था।
- जमींदारी व्यवस्था का एक परिणाम यह हुआ कि ब्रिटिश काल के दौरान कृषि उत्पादन कम होने लगा।
2. कृषि स्थिति स्वतंत्र भारत
- निराशाजनक स्थिति
- आयातित अनाज पर निर्भरता
- पैदावार का कम होना
- ग्रामीण जनसंख्या के एक बड़े भाग में गरीबी का होना
- 1950 से 1970 के बीच में भूमि सुधार कानूनों को एक श्रृंखला को शुरू किया गया
- इसे राष्ट्रीय स्तर के साथ राज्य के स्तर पर भी चलाया गया इसका इरादा इन परिवर्तनों को लाने का था।
महत्वपूर्ण परिवर्तन
- तीन महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गये थे
1. जमींदारी व्यवस्था उन्मूलन
- जमींदारी व्यवस्था को समाप्त किया गया
- उनकी आर्थिक एवं राजनीतिक शक्तियों को कम करने
- भूस्वामियों एवं स्थानीय कृषकों की स्थिति को मजबूत कर दिया
2. पट्टेदारी का उन्मूलन और नियंत्रण अधिनियम।
- पट्टेदारी को पूरी तरह से हटाने का प्रयत्न किया
- किराए के नियम बनाए ताकि पट्टेदार को कुछ सुरक्षा मिल सके।
3. भूमि की हदबंदी अधिनियम।
- एक विशिष्ट परिवार के लिए जमीन रखने की उच्चतम सीमा तय कर दी गई।
- इसे भूमिहीन परिवारों को तय की गई श्रेणी के अनुसार पुनः वितरित कर दें जैसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में।
- इसमें बहुत से ऐसे बचाव के रास्ते और युक्तियाँ थी जिससे परिवारों और घरानों ने अपनी भूमि को राज्यों को देने से बचा लिया था।
- उनके नौकर के नाम भी तथाकथित बेनामी बदल दी गई जिसमें उन्हें जमीन पर नियंत्रण करने का अधिकार दिया गया
भूमि सुधार का प्रभाव
- भूमि सुधार न केवल कृषि उपज को अधिक बढ़ाने के लिए बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों से गरीबी हटाने और सामाजिक न्याय दिलाने के लिए भी आवश्यक है।
- इसमें औपनिवेशिक काल से अब तक वास्तव में परिवर्तन आया, लेकिन अभी भी बहुत असमानता बची हुई है।
हरित क्रांति
- हरित क्रांति 1960 और 1970 के दशक में हुए कृषि परिवर्तन के दौर को कहा जाता है जिसमे आधुनिक कृषि तकनीकों और प्रौद्योगिकियों को अपनाया गया था।
- हरित क्रांति कृषि आधुनिकीकरण का एक सरकारी कार्यक्रम था।
- इसका मुख्य उद्देश्य कृषि उत्पादकता को बढ़ाना और देश में खाद्य आत्मनिर्भरता हासिल करना था
- इसने भूख और गरीबी को कम करने, ग्रामीण आजीविका में सुधार और कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- हरित क्रांति को देश को भोजन की कमी वाले देश से ऐसे देश में बदलने का श्रेय दिया जाता है
- इसमें अनुसंधान के माध्यम से विकसित गेहूं और चावल के लिए उच्च उपज देने वाली बीजों की किस्मों की शुरूआत शामिल है
- यह कीटनाशकों, खादों तथा किसानों के लिए अन्य निवेश देने पर केंद्रित थी।
हरित क्रांति का क्षेत्र
1. पंजाब
2. पश्चिमी उत्तर प्रदेश
3. तटीय आंध्र प्रदेश
4. तमिलनाडु के कुछ हिस्से
हरित क्रांति की कुछ कमियाँ
1. पर्यावरणीय क्षरण
2. रासायनिक पर निर्भरता
3. सामाजिक असमानता
4. पारंपरिक खेती के तरीकों का नुकसान
5. जल की कमी
सामाजिक असमानता
1. संसाधनों तक पहुंच
2. ऋण पहुंच
3. बाज़ार तक पहुँच
4. भूमि संकेंद्रण
- वे क्षेत्र जहाँ तकनीकी परिवर्तन हुआ अधिक विकसित हो गए जबकि अन्य क्षेत्रों में कोई परिवर्तन नही हुआ
- हरित क्रांति देश के पूर्वी, पश्चिमी तथा दक्षिणी भागों तथा पंजाब-हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लागू की गयी
हरित क्रांति का दूसरा चरण
- भारत के सूखे तथा आशिक सिंचित क्षेत्रों में लागू किया गया।
- इन क्षेत्रों में सूखी कृषि से सिंचित कृषि की ओर एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है
- साथ ही फसल के प्रतिमानों एवं प्रकारों में भी परिवर्तन आया है।
- किसान जो एक समय अपने प्रयोग के लिए खाद्यान्न का उत्पादन करते थे अब अपनी आमदनी के लिए बाजार पर निर्भर हो गए
स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण समाज में परिवर्तन
- जहाँ हरित क्रांति लागू हुई उन क्षेत्रों में अनेक प्रभावशाली रूपांतरण हुए
- गहन कृषि के कारण कृषि मजदूरों की बढ़ोतरी
- भुगतान में सामान (अनाज) के स्थान पर नगद भुगतान
- भूस्वामी एवं किसान के मध्य संबंधों में कमी होना
- मुक्त' दिहाड़ी मजदूरों के वर्ग का उदय
ये परिवर्तन हो कहाँ हो रहे थे ?
- उन तमाम क्षेत्रों में हुए जहाँ कृषि का व्यापारीकरण अधिक हुआ
- जहाँ फसलों का उत्पादन मूल रूप से बाजार में बिक्री के लिए किया।
- अधिक विकसित क्षेत्रों के किसान अधिक बाजारोन्मुखी हो रहे थे।
- कृषि के अधिक व्यापारीकरण के कारण ये ग्रामीण क्षेत्र भी विस्तृत अर्थ व्यवस्था में जुड़ते जा रहे थे।
- प्रबल जातियों के किसानों ने कृषि केलाभ को अन्य प्रकार के व्यापारों में निवेश करना प्रारंभ कर दिया।
- इससे नए उद्यमी समूहों का उदय हुआ जिन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों से कस्बों की ओर पलायन किया
- जिससे नए क्षेत्रीय अभिजात वर्गों का उदय हुआ जो आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से प्रबल हो गए।
- ग्रामीण तथा अर्द्ध-नगरीय क्षेत्रों में उच्च शिक्षा का विस्तार निजी व्यावसायिक महाविद्यालयों की स्थापना से नव ग्रामीण अभिजात वर्ग द्वारा अपने बच्चों को शिक्षित करना संभव हुआ
- पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में पुनर्वितरण के साधनों के कारण वहाँ तुलनात्मक रूप से कृषिक संरचना तथा अधिकांश लोगों की जीवन दशाओं में थोड़े बदलाव हुए।
मजदूरों का संचार (सरकुलेशन)
- मजदूरों तथा भूस्वामियों के बीच पारंपरिक संबंध टूटने लगे
- हरित क्रांति के संपन्न क्षेत्रों में कृषि मजदूरों की माँग बढ़ने लगी
- मौसमी पलायन का एक रूप उभरा जिसमें हजारों मजदूर अपने गाँवों से अधिक संपन्न क्षेत्रों की तरफ़ संचार करते हैं।
- जहाँ मजदूरों की अधिक माँग तथा उच्च मजदूरी थी
- पुरुष समय-समय पर काम तथा अच्छी मजदूरी की खोज में अप्रवास कर जाते हैं
- स्त्रियों तथा बच्चों को अक्सर गाँव में बुजुर्ग माता-पिता के साथ छोड़ दिया जाता है।
- प्रवसन करने वाले मजदूर मुख्यतः सूखाग्रस्त तथा कम उत्पादकता वाले क्षेत्रों से आते हैं
- वे वर्ष के कुछ हिस्सों के लिए पंजाब तथा हरियाणा के खेतों में, उत्तर प्रदेश के ईंट के भट्टों में,
- नयी दिल्ली या बैंगलोर जैसे शहरों में, भवन निर्माण कार्य में काम करने के लिए जाते हैं।
- प्रवसन करने वाले इन मजदूरों को जान ब्रेमन ने 'घुमक्कड़ मजदूर' कहा है उन्हें अक्सर न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जाती है।
- धनी किसान कृषि क्रियाओं के लिए स्थानीय कामकाजी वर्ग के स्थान पर, प्रवसन करने वाले मजदूरों को प्राथमिकता देते हैं
क्यों ?
- प्रवसन करने वाले मजदूरों का आसानी से शोषण किया जा सकता है उन्हें कम मजदूरी भी दी जा सकती है।
- प्रवसन तथा काम की सुरक्षा के अभाव से इन मजदूरों के कार्य तथा जीवन दशाएँ खराब हो जाती हैं।
- निर्धन क्षेत्रों में, जहाँ परिवार के पुरुष सर्वस्य वर्ष का अधिकतर हिस्सा गाँवों के बाहर काम करने में बिताते हैं, कृषि मूलरूप से एक महिलाओं का कार्य बन गया है।
- महिलाएँ भी कृषि मजदूरों के मुख्य स्रोत के रूप में उभर रही हैं जिससे 'कृषि मजदूरों का महिलाकरण' हो रहा है।
- महिलाओं में असुरक्षा अधिक है क्योंकि वे समान कार्य के लिए पुरुषों से कम मजदूरी पाती हैं।
भूमंडलीकरण, उदारीकरण तथा ग्रामीण समाज
- कृषि का भूमंडलीकरण का अर्थ भारतीय कृषि उत्पादों को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार की प्रतिस्पर्धा में शामिल करना है
- भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का किसानों पर असर पड़ा
- पंजाब कर्नाटक जैसे इलाकों में किसानों द्वारा कंपनियों ने कुछ निश्चित फसलें बेचने का कॉन्ट्रैक्ट किया है
- बहराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा संविदा खेती पद्धति के तहत उगाई जाने वाली फसलों की पहचान की जाती है
- बहुराष्ट्रीय कंपनियां किसानों से फसलें खरीद लेती हैं
- यह कंपनियां पूर्व निर्धारित मूल्य पर फसल खरीदने को आश्वासन देती है
- इससे किसान बाजार की तरफ से चिंतित नहीं रहता
- इसके अलावा कृषि के भूमंडलीकरण के तहत बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा कृषि मद जैसे बीज, कीटनाशक, खाद और उर्वरक के विक्रेता के रूप में बाजार में प्रवेश करती हे
किसानों द्वारा आत्महत्या
- भारत में किसान सदियों से सूखे, फसल न होने अथवा ऋण के कारण परेशानी का सामना करते रहे हैं।
- मैट्रिक्स घटनाएँ जहाँ कारकों की एक श्रृंखला मिलकर एक घटना बनाती हैं। अलग अलग कारणों से किसान आत्महत्या क्र लेते थे इसी को मैट्रिक्स घटनाएँ कहा गया
- आत्महत्या करने वाले बहुत से किसान 'सीमांत किसान' थे जो मूलरूप से हरित क्रांति के तरीकों का प्रयोग करके अपनी उत्पादकता बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे।
किसानों द्वारा आत्महत्या के कारण
- उत्पादन लागत में तेजी से बढ़ोतरी
- बाजार स्थिर नहीं है
- अत्यधिक उधार लेते हैं
- खेती का न होना
अधिक आय की आवश्यकता क्यों पड़ रही थी
- बाज़ार मूल्य के अभाव के कारण किसान कर्ज का बोझ उठाने अथवा अपने परिवारों को चलाने में असमर्थ होते हैं।
- ग्रामीण क्षेत्रों की परिवर्तित होने वाली संस्कृति जिसमें विवाह, दहेज तथा अन्य नयी गतिविधियाँ तथा शिक्षा व स्वास्थ्य की देखभाल के खर्चों के कारण
सुधारात्मक उपाय
- प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना
- ग्राम उदय से भारत उदय अभियान
- नैशनल अरबन मिशन
- इन कार्यक्रमों ने पूरे देश में किसानों के लिए सहायता के मार्ग खोले हैं।
- इन कार्यक्रमों के द्वारा ग्रामीण लोगों के जीवन में सुधार हुआ है।
Watch chapter Video